गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य
The Great Geeta
No• 043
परमात्म-अवतरण एवं कर्मयोग
पाँचवां और छठाा अध्याय
भगवान ने फिर आगे बताया कि कर्मयोग के बिना सन्यास की प्राप्ति नहीं हो सकती है ! जो योगयुक्त्त और पवित्र आत्मा है , जो सर्व प्राणियों में आत्मा को देखता है , आत्मिक दृष्टि का अभ्यास करता है , वह इस शरीर को नहीं देखता है कि ये फलाना है , ये फलानी है ! लेकिन हर एक में विराजमान आत्मा को देखता है ! आत्मा को देखते हुए उसका मन वश में होता है ! जब शरीर को देखता है कि ये काला है , ये गोरा है , ये ऊंचा है , ये नीचा है तो उसके अन्दर अनेक प्रकार के भाव आने लगते हैं तो मन वश में नहीं रहता है ! मन को वश करने की सहज विधि बतायी है कि तुम सबमें आत्मा को देखो ! ऐसे वह जितेन्द्रिय, सर्व कर्मेन्द्रिया द्वारा कर्म करते हुए भी स्वयं को उससे भिन्न समझता है शरीर मात्र एक साधन है ! जो व्यक्त्ति अनासक्त्त भाव से अपना कर्म करता है और उसका सभी फल परमात्मा के प्रति समर्पित कर देता है , वह कर्म करते हुए भी कर्म बन्धन से अलिप्त रहता है ! जिस प्रकार कमल जल से अलिप्त रहता है वैसे कर्मयोगी का हर कर्म आत्मशुद्धि के लिए होता है ! वह पुरूष ( आत्मा ) नौ द्वार वाले इस देह में रहते हुए मन , बुद्धि संस्कार पर अपना नियंत्रण करते हुए परम शान्ति एवं परम सुख का अनुभव करता है ! जैसे कमल जल में रहते अलिप्त ( detachment ) रहता है , ऐसे संसार में रहते हुए भी वह अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाता है
राजा जनक ने एक बार सवाल किया कि जीवन-मुक्त्ति स्थिति किसको कहते हैं ? मुझे वो ज्ञान कोई एक सेकण्ड में दें ! कई विद्वान आये , राजा जनक को ज्ञान सुनाने के लिए लेकिन जैसे ही वे ज्ञान देना आरम्भ करते तो राजा जनक कहते कि मुझे ज्ञान नहीं चाहिए ! मुझे प्रैक्टिकल में कोई एक सेकण्ड में बतायें कि जीवन-मुक्त्त स्थिति किसको कहते हैं ! आखिर जब सभा शान्त हो गई , तो राजा जनक भी निराश हो गए और कहा कि मेरे विद्वानों में कोई भी ऐसा नहीं जो जीवन-मुक्त्त स्थिति को बता सके ! तभी वहाँ अष्टावक्र प्रवेश करते हैं ! अष्टावक्र जैसे ही आगे बढ़ते हैं ज्ञान सुनाने के लिए , तो सारी सभा उस पर हसनें लगती है ! उस समय अष्टावक्र ने राजा से कहा कि हे राजन ! मैं तो समझता कि तुम्हारे दरबार में विद्वानों की सभा है , लेकिन आज मुझे पता चला कि ये तो चमारों की सभा है ! सारे विद्वान एकदम गुस्से में आ गए कि हमें चमार कहा, अष्टावक्र ने कहा कि ये विद्वान मुझ आत्मा को नहीं देखते हैं कि ये आत्मा कितनी ऊंच हो सकती है ? वो मेरी चमड़ी को देख रहे हैं इसलिए हंस रहे हैं !
यही बात यहाँ पर कही गई है कि हे अर्जुन ! सबमें आत्मभाव को देखो , आत्मरूप को देखो , उसकी चमड़ी को नहीं देखो ! क्योंकि चमड़ी को देखने से अनेक भाव उत्पन्न होंगे ! अष्टावक्र ने राजा से कहा कि आपको एक सेकण्ड में ज्ञान चाहिए ना ? मैं आपको अभी ज्ञान नहीं दूंगा , समय आने पर ज्ञान दूंगा ! सभा विसर्जित हुई राजा ने अपना घोड़ा मंगवाया कि थोड़ा बाहर सैर कर के आते हैं ! जैसे ही घोड़ा आया और राजा ने एक पैर घोड़े पर रखा और एक पैर उनका जमीन पर था ! दूर से अष्टावक्र ने राजा को आवाज़ दी कि हे राजन ! इस वक्त्त तुम कहाँ हो ? राजा सोच में पड़ गया कि ज़मीन पर होते हुए ज़मीन पर नहीं हूँ , घोड़े पर होते हुए भी घोड़े पर नहीं हूँ ! अष्टावक्र कहते हैैं कि यही तो जीवन-मुक्त्ति का रहस्य है कि संसार में रहते हुए संसार से अलिप्त रहो , ये सही मार्ग है जीवन-मुक्त्ति की अनुभूति करने का ! मुक्त्ति से भी श्रेष्ठ , जीवन-मुक्त्ति को माना गया है !
भगवान ने फिर आगे बताया कि कर्मयोग के बिना सन्यास की प्राप्ति नहीं हो सकती है ! जो योगयुक्त्त और पवित्र आत्मा है , जो सर्व प्राणियों में आत्मा को देखता है , आत्मिक दृष्टि का अभ्यास करता है , वह इस शरीर को नहीं देखता है कि ये फलाना है , ये फलानी है ! लेकिन हर एक में विराजमान आत्मा को देखता है ! आत्मा को देखते हुए उसका मन वश में होता है ! जब शरीर को देखता है कि ये काला है , ये गोरा है , ये ऊंचा है , ये नीचा है तो उसके अन्दर अनेक प्रकार के भाव आने लगते हैं तो मन वश में नहीं रहता है ! मन को वश करने की सहज विधि बतायी है कि तुम सबमें आत्मा को देखो ! ऐसे वह जितेन्द्रिय, सर्व कर्मेन्द्रिया द्वारा कर्म करते हुए भी स्वयं को उससे भिन्न समझता है शरीर मात्र एक साधन है ! जो व्यक्त्ति अनासक्त्त भाव से अपना कर्म करता है और उसका सभी फल परमात्मा के प्रति समर्पित कर देता है , वह कर्म करते हुए भी कर्म बन्धन से अलिप्त रहता है ! जिस प्रकार कमल जल से अलिप्त रहता है वैसे कर्मयोगी का हर कर्म आत्मशुद्धि के लिए होता है ! वह पुरूष ( आत्मा ) नौ द्वार वाले इस देह में रहते हुए मन , बुद्धि संस्कार पर अपना नियंत्रण करते हुए परम शान्ति एवं परम सुख का अनुभव करता है ! जैसे कमल जल में रहते अलिप्त ( detachment ) रहता है , ऐसे संसार में रहते हुए भी वह अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाता है
राजा जनक ने एक बार सवाल किया कि जीवन-मुक्त्ति स्थिति किसको कहते हैं ? मुझे वो ज्ञान कोई एक सेकण्ड में दें ! कई विद्वान आये , राजा जनक को ज्ञान सुनाने के लिए लेकिन जैसे ही वे ज्ञान देना आरम्भ करते तो राजा जनक कहते कि मुझे ज्ञान नहीं चाहिए ! मुझे प्रैक्टिकल में कोई एक सेकण्ड में बतायें कि जीवन-मुक्त्त स्थिति किसको कहते हैं ! आखिर जब सभा शान्त हो गई , तो राजा जनक भी निराश हो गए और कहा कि मेरे विद्वानों में कोई भी ऐसा नहीं जो जीवन-मुक्त्त स्थिति को बता सके ! तभी वहाँ अष्टावक्र प्रवेश करते हैं ! अष्टावक्र जैसे ही आगे बढ़ते हैं ज्ञान सुनाने के लिए , तो सारी सभा उस पर हसनें लगती है ! उस समय अष्टावक्र ने राजा से कहा कि हे राजन ! मैं तो समझता कि तुम्हारे दरबार में विद्वानों की सभा है , लेकिन आज मुझे पता चला कि ये तो चमारों की सभा है ! सारे विद्वान एकदम गुस्से में आ गए कि हमें चमार कहा, अष्टावक्र ने कहा कि ये विद्वान मुझ आत्मा को नहीं देखते हैं कि ये आत्मा कितनी ऊंच हो सकती है ? वो मेरी चमड़ी को देख रहे हैं इसलिए हंस रहे हैं !
यही बात यहाँ पर कही गई है कि हे अर्जुन ! सबमें आत्मभाव को देखो , आत्मरूप को देखो , उसकी चमड़ी को नहीं देखो ! क्योंकि चमड़ी को देखने से अनेक भाव उत्पन्न होंगे ! अष्टावक्र ने राजा से कहा कि आपको एक सेकण्ड में ज्ञान चाहिए ना ? मैं आपको अभी ज्ञान नहीं दूंगा , समय आने पर ज्ञान दूंगा ! सभा विसर्जित हुई राजा ने अपना घोड़ा मंगवाया कि थोड़ा बाहर सैर कर के आते हैं ! जैसे ही घोड़ा आया और राजा ने एक पैर घोड़े पर रखा और एक पैर उनका जमीन पर था ! दूर से अष्टावक्र ने राजा को आवाज़ दी कि हे राजन ! इस वक्त्त तुम कहाँ हो ? राजा सोच में पड़ गया कि ज़मीन पर होते हुए ज़मीन पर नहीं हूँ , घोड़े पर होते हुए भी घोड़े पर नहीं हूँ ! अष्टावक्र कहते हैैं कि यही तो जीवन-मुक्त्ति का रहस्य है कि संसार में रहते हुए संसार से अलिप्त रहो , ये सही मार्ग है जीवन-मुक्त्ति की अनुभूति करने का ! मुक्त्ति से भी श्रेष्ठ , जीवन-मुक्त्ति को माना गया है !
आत्मा की सोई हुई ऊर्जा को जगाने के लिए जरूरी है.... ज्ञान - योग
बुद्धि में सदा यह याद रखो कि ✨....एक सोया हुआ इंसान दुसरो को कभी नही जगा सकता....दूसरों को वही जगा सकता है जो स्वयं जगा हुआ होगा...
बुद्धि में सदा यह याद रखो कि ✨....एक सोया हुआ इंसान दुसरो को कभी नही जगा सकता....दूसरों को वही जगा सकता है जो स्वयं जगा हुआ होगा...
☝परमात्मा ने हम आत्माओं को अनेक आलौकिक आंतरिक शक्तियां उपहार स्वरूप दी हैं जो कि सही ज्ञान ना मिलने के कारण अभी सोई हुई हैं । जब ज्ञान और योग के निरन्तर अभ्यास द्वारा भीतर की सोई हुई दिव्य ⚡ऊर्जा जागृत होती है तो जीवन उसी तरह पूर्ण रूप से प्रकाशमान हो जाता है ।
जैसे किसी बन्द कमरे की कोई ईंट निकल जाने से उस झरोखे से सूर्य की किरणे प्रवेश कर उसे प्रकाश से भर देती हैं । मनुष्य अपना भाग्य अपने अच्छे व बुरे कर्मो के द्वारा ही रचता है । सुख और दुःख हम अपने कर्मो द्वारा स्वयं ही प्राप्त करते हैं ।सुख में हैं तो कारण हम है और दुःख में हैं तो दोषी हम हैं इसके लिए दूसरों पर दोषारोपण नही कर सकते ।
इसलिए सदैव अपने भाग्य की सरहाना करो और सोचो.... कि हमारा जन्म इस धरती पर अकारण नही हुआ है । परमात्मा ने अपने कार्य के लिए हम बच्चों को चुना है, हम बहुत ही भाग्यशाली आत्माएं हैं । अपने आप को कभी दींन - हीन ना समझे । हमारे विचार ही हमे पूण्य और देव आत्मा बनाते हैं । इसलिए कर्मेन्द्रिय जीत बन सदा महान और ऊँचे कर्म करो ।
और बुद्धि में सदा यह याद रखो कि एक सोया हुआ इंसान दुसरो को कभी नही जगा सकता, दूसरों को वही जगा सकता है जो स्वयं जगा हुआ होगा । हम सुधरेगे जग सुधरेगा । ☺हम बदलेंगे जग बदलेगा ।इसलिए अब हमे अपना यह जीवन कुम्भकरण की नींद सोने वालो को जगाने में लगाना है और इस महान कार्य के लिए ☝परम पिता सदा हमारे साथ है ।
समस्या तो हमारे धैर्य, संयम और आत्मनियंत्रण को देखने के लिए आती है....और उसके आते ही जब हम अपना धैर्य, संयम और नियंत्रण खो देते हैं तो..... वह हमे 0 जीरो नम्बर दे कर खुद पूरे 100 नम्बर ले विजयी मुस्कान धारण कर चली जाती है☺
☝भगवान को ज्ञानी आत्मा प्रिय है पर उससे भी अधिक ज्ञानी तू आत्मा प्रिय है । ज्ञानी का अर्थ है, जो हर बात का केवल ज्ञान रखता है पर स्वयं उस ज्ञान को सदा स्वयं में धारण करने की इच्छा नही रखता । लेकिन ज्ञानी तू आत्मा वह है जो हर स्थिति, हर परिस्थिति में ज्ञान को, मूल्यों को धारण किये रहता है ।
जैसे बाजार में कच्चे और पक्के दोनों प्रकार के रंगो वाले कपड़े मिलते हैं । रंगो को परखने के लिए हम उन्हें पानी में डुबोकर अथवा मसल कर देखते हैं । कच्चे रंग वाला कपड़ा तुरन्त बदरंग हो जाता है और पक्के रंग वाले कपड़े की छपाई पहले की तरह ही आकर्षक बनी रहती है ।
इसी प्रकार अनेक गुणों की धारणा व्यक्ति को आकर्षक बनाती है । परन्तु देखना यह है कि ये गुण हर स्थिति - परिस्थिति में बने रहते हैं या प्रतिकुल परिस्थिति आते ही छूट जाते हैं । फायदा तब है जब परिस्थितियों के तूफानों में भी हम कर्मो की मर्यादा को बनाये रखें ।
☔जैसे भारी बरसात पड़ने पर यदि गंगा का पानी किनारों की सीमा से बाहर बहने लगे तो कोई उसकी पूजा नही करता बल्कि उससे बचने की कोशिश करते हैं । इसी प्रकार कोई व्यक्ति कितना भी आदरणीय हो लेकिन यदि समस्या के समय वह अपनी दृष्टि, वाणी और कर्म को नही संभाल पाता तो असम्मान का पात्र बनता है ।
समस्या तो हमारे धैर्य, संयम और आत्मनियंत्रण को देखने के लिए आती है और उसके आते ही जब हम अपना धैर्य, संयम और नियंत्रण खो देते हैं तो वह हमे जीरो नम्बर दे कर खुद पूरे 100 नम्बर ले विजयी मुस्कान धारण कर चली जाती है ।
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